शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

तब होगी ईश्वर की कृपा

भक्ति और आराधना से तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि हम केवल हाथ में माला ही पकड़े रहें। भगवान की प्रार्थना, उपासना, स्तुति का मतलब भी इतना ही नहीं है कि हम केवल अपने लिए और अपनों की सलामती के लिए ही कामना करते रहें, भगवान के नाम की माला हाथ में थामे हुए अगर केवल अपने विषय में, मालामाल होने की प्रार्थना करते रहें तो यह अनुचित हो जाएगा।इससे मनुष्य आध्यात्मिक सम्पत्ति से कंगाल हो जाएगा। वेदों में स्पष्ट कहा गया है कि भगवान की भक्ति का सीधा सा अर्थ है उसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना और वही ईश्वरीय आज्ञाएं इंसान को सदगुरु प्रदान करते हैं।

इसलिए *गुरु आज्ञा का कभी उलंघन न करें, सत्पुरुषों की न स्वयं निन्दा करें और न किसी के द्वारा किए जाने पर श्रवण करें, भगवान के अनेक नाम हैं और स्वरूप हैं।* उनमें कभी भेद न करें।जैसे शिव और विष्णु, राम और कृष्ण आदि उनमें कोई भेदभाव की दृष्टि न रखें, वैदिक विचारों की भी निन्दा अनुचित है, शास्त्रों का सम्मान करें और गुरु ज्ञानी जनों के प्रति अगाध श्रद्घा बनाए रखें। प्रेम भाव बनाए रखने से जीवन जगमगा उठता है।ब्रह्मज्ञानी सदगुरु के द्वारा प्रदत्त सद्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में, उनके द्वारा संचालित सेवा के महान कार्यों में सहयोगी बनकर जो व्यक्ति खड़ा हो जाता है, धर्म के प्रति जो कष्ट सहकर भी वफादारी निभाता है, उसके पुण्य के प्रताप से उसकी आने वाली सात पीढि़यां भवसागर से पार हो जाती हैं और वह भी तर जाता है।इसलिए धर्म के पुण्य कार्यों में भागीदार बनना, सहयोग और सेवा प्रदान करना अपने जीवन का अंग बनाओ। गुरुचरणों में शीष नवाने वाले लोग, गुरु को मानने वाले लोग तो दुनिया में बहुत मिल जाएंगे। किंतु गुरु की आज्ञा का पालन करने वाले तो विरले ही होते हैं।पर जो होते हैं उनके हृदय में स्वयं गुरु विराजमान हो जाते हैं, उन्हें ईश्वरीय असीम शक्तियों का अहसास होने लगता है, वे सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ, जय- पराजय, यहां तक कि गुरुकार्यों की सम्पूर्णता के लिए अपना सर्वस्व लगाने से भी पीछे नहीं हटते। क्योंकि उन्हें गुरु का आदेश ईश्वर का संदेश प्रतीत होने लगता है।

गुरू भक्त आरूणी ऐसा ही एक शिष्य था जिसे गुरू का आदेश ईश्वर का आदेश लगता था। इस शिष्य का नाम था आरुणि। एक बार गुरू ने आरूणी को आदेश दिया कि खेत में पानी लगाना है। पानी का बहाव तेज था, जिससे खेत की मेंड़ टूट गई। आरुणि ने भरसक प्रयत्न किया पानी रोकने का।लेकिन जैसे ही वह फावड़े से खोदकर मिट्टी लगाता, वैसे ही पानी की तीव्र धरा उसे अपने साथ बहा ले जाती। आरुणि के लिए गुरु की आज्ञा सर्वोपरि थी, उसके महत्व को वह भलीभांति जानता था। पानी और मिट्टी के कीचड़ में वह स्वयं मेड़ बनकर लेट गया और लेटा ही रहा। सुबह से शाम, शाम से रात्रि और भोर होने लगी।गुरु ने अपने अन्य शिष्यों से कहा आरुणि कहां है? सभी मौन थे, गुरु ने कहा वह तो खेत में पानी लगाने गया था। क्या वहां से लौटकर अभी तक नहीं आया। बिना कुछ कहे सबने जानकारी न होने की असमर्थता जताई। गुरु ने आदेश दिया चलो, मेरे साथ आरुणि अब तक खेत में क्या कर रहा है? और जाकर देखते हैं।वह नशारा अद्भुत था, भोर का समय और गुरु स्वयं चलकर आरुणि की खोज कर रहे हैं। जाकर देखा आरुणि मिट्टी में धंसा हुआ है और अपनी देह से पानी के प्रवाह को रोक रहा है। मुंह में भी मिट्टी, आंखों में भी मिट्टी, सर्दी से शरीर सुन्न हो गया।किंतु गुरु-आज्ञा की पालना के सामने ये शारीरिक, मानसिक वेदना क्या महत्व रखती हैं? कीचड़ में सने हुए आरुणि को आज उनके गुरु ने अपने सीने से लगा लिया और सिर पर हाथ रखकर कहने लगे। आरुणि! मेरे प्यारे! तुम ध्न्य हो, और तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी श्रद्घा, तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा समर्पण भाव, तुम्हारी सेवा, तुम्हारी आज्ञा पालना केवल मैं नहीं ईश्वर भी देख रहे हैं, तुम्हें अवश्य ही इसका अभीष्ट फल प्राप्त होगा।आरुणि की आंखों में आंसू हैं, पर गुरु उन प्रेम भाव में बहने वाले मोतियों को अपने हाथों में समेट रहे हैं और आरुणि के उपर हृदय से आशीर्वाद का अमृत बरसा रहे हैं।

*जो शिष्य गुरु के आदेश का प्राणपन से पालन करता है, प्रतिकूल स्थिति में भी विपदाओं की परवाह किए बिना, संकल्पित होकर सेवा कार्यों में लगा रहता है, उसके उपर ऐसे ही गुरु कृपा और प्रभु की दया बनी रहती है। ऐसे अनोखे शिष्य के लिए तो गुरु स्वयं चलकर उसके पास पहुंच जाते है*

*राजमार्ग 8055555051*

यमराज आये सपने में

एक दिन यमराज आए मेरे सपनों मे
ठंडी आवाज मे बोले, चल बहुत रह लिया
अपनो मे
पाया क्या है तूने यहॉ, जो खो जाएगा
जागेगा ना कोई तेरी याद मे, सारा जहां सो जाएगा
ना था तेरा कोई, ना तू किसिका अपना था
समझ बैठा जिसे तू सच, वो तो खैर एक सपना था
यहॉ तो सब कुछ दिखावा होता है
बांटता है ना कोई दुख, ना कोई किसि के लिये रोता है
अपने हो जाते है पराए एक पल में
आज तू हक़िक़त है, समा जाएगा तेरा नाम भी कल मे
ना रहेगा निशान, जहां तू कभी मौजूद था
मानो जैसे तेरी ना कोई हस्ती थी, ना ही कोई वजूद था
अब तेरी कोई वजह नही यहां रहने की
चल छोड सब को, तेरी सरहद आ गई गम सहने की

*राजमार्ग 8055555051*

प्रेम किससे करे भाग 2

प्रेम साध्य नही है, लक्ष्य नही है, साधन है, उस परमेश्वर अखण्ड प्रेम धारा में सम्मिलित होने का

पैसा भी जीवन का साध्य नही साधन है,

जीना है तो कुछ न कुछ मात्रा में पैसा भी चाहिये,

लेकिन जब साधन ही बंध का कारण हो जाये तो किसी भी प्रकार के दुखों से मुक्ति नही होती।

साध्य क्या है ये निश्चय करने का काम बुद्धि का है। लेकिन बुद्धि को अकेले निर्णय करना नही आता। जब विवेक बुद्धि से जुड़ता है, तब सारासार विचार हो कर ज्ञान उपजता है, फिर वैराग्य दिखाई देता है।

पर इतना वेदांत समझने के लिये गुरु से निरपेक्ष प्रेम चाहिए।

बालबुद्धि से सवाल हो
पर प्रौढ़ बुद्धि से सवाल न हो
न ही गुरु को दिशा निर्देश देने की चेष्टा हो....

यही रास्ता है, ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रेसर व्यक्ति के लिये।

सीताराम

प्रेम किससे करे

कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें है बातो का क्या...

इसीलिये, गोरक्ष विद्या कहती है,

अध्यात्म में प्रेम तो होता है, पर रिश्ता नही होता,
रिश्ते में बंध होता है। और बंध मुक्ति में बाधा निर्माण करता है।

प्रेम तो प्रेम है
गुरु का हो, माँ का हो या ईश्वर का....

रिश्ते में मालिक नौकर के जैसा भेद होता है।

प्यार से रहो, लेकिन रिश्ते मत बनाओ, सब से प्रेम करो, पर किसी चीज पर सिर्फ मेरा हक है, ये पागलपंती छोड़ दो।

दुनिया मे तुम्हारे अकेले के लिये कुछ भी नही बना....

तुम स्वयं भी किसी एक के लिये नही बने।

तुम पर भी अनेक लोगो के उपकार है, सहयोग है, उनका भी हक़ है।

तुम भी किसी का भाई हो, किसी की बहन हो, किसी का बेटा हो, अनेक बंध लेकर ही जन्म होता है।

इन्ही बन्धों से मुक्त गुरु करते है, और केवल ईश्वर की ओर लेके जाते है।

वही बन्धमुक्त है। एक बन्धमुक्त के पास जाने के लिये खुद को भी बंध मुक्त होना पड़ता है।

इसलिये संसार मे सब के साथ बंधे हुए हो ऐसा नाटक करो, अंदरसे केवल प्रेम उन्ही से करो जो जो बंध मुक्त है, या जो बंध से मुक्त होना चाहते है।

आदेश.....

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

नेमके काय चुकतय

आपल्यापैकी सगळ्यांचेच आयुष्य मर्यादित आहे आणि जीवनाचा जेंव्हा शेवट होईल तेंव्हा इथली कोणतीच गोष्ट आपल्यासोबत नेता येणार नाही.! मग जीवनात खुप काटकसर कशासाठी करायची ? आवश्यक आहे तो खर्च केलाच पाहिजे ज्या गोष्टींतुन आपल्यास आनंद मिळतो त्या गोष्टी केल्याच पाहिजेत. शक्य असेल तेवढा दानधर्म करायला हवा. मुलांसाठी किंवा नातवंडांसाठी संपत्ती गोळा करुन साठवून ठेवायची गरज नाही. तसे केले तर पुढची काही वर्षे स्वतःकाही न करता ते नुसते बसुन खातील आणि आपल्या मृत्युची वाट बघतील.
आपण गेल्यानंतर पुढे काय होणार याची मुळीच चिंता करु नका. कारण आपला देह जेंव्हा मातीत मिसळून जाईल तेंव्हा कुणी आपले कौतुक केले काय किंवा टीका केली काय ? जीवनाचा आणि स्वकष्टाने मिळवलेल्या पैशांचा आनंद घेण्याची वेळ निघून गेलेली असेल.! तुमच्या मुलांची खुप काळजी करु नका. त्यांना स्वत:चा मार्ग निवडू द्या. स्वतःचे भविष्य घडवू द्या. त्यांच्या ईच्छा आकांक्षाने आणि स्वप्नांचे तुम्ही गुलाम होऊ नका. मुलांवर प्रेम करा, त्यांची काळजी घ्या, त्यांना भेटवस्तुही द्या. मात्र काही खर्च स्वतःवर, स्वतःच्या आवडीनिवडीवर करा.
जन्मापासून मृत्युपर्यंत नूसते राबराब राबणे म्हणजे आयुष्य नाही, हे देखील लक्षात ठेवा.
तुम्ही कदाचित आपल्या चाळीशीत असाल, पन्नांशीत किंवा साठीत, आरोग्याची हेळसांड करुन पैशे कमवण्याचे दिवस आता संपले आहेत. पुढील काळात पैशे मोजून सुद्धा चांगले आरोग्य मिळणार नाही. या वयात प्रत्येकापुढे दोन महत्त्वाचे प्रश्न असतात. पैसा कमवणे कधी थांबवायचे आणि किती पैसा आपल्याला पुरेल.? तुमच्याकडे शेकडो हजारो एकर सुपीक शेतजमिन असली तरी तुम्हाला दररोज किती अन्नधान्य लागते ? तुमच्याकडे अनेक घरे असली तरी रात्री झोपण्यासाठी एक खोली पुरेशी असते.
एक दिवस आनंदाशिवाय गेला तर आयुष्यातला एक दिवस तुम्ही गमावला आहात. एक दिवस आनंदात गेला तर आयुष्यातला एक दिवस तुम्ही कमावला आहात, हे लक्षात असू द्या. आणखी एक गोष्ट तुमचा स्वभाव खेळकर, उमदा असेल तर तुम्ही आजारातून बरे व्हाल, आणि तुम्ही कायम प्रफुल्लीत असाल, तर तुम्ही आजारी पडणारच नाहीत. सगळ्यात महत्वाचे म्हणजे आजूबाजूला जे जे उत्तम आहे उदात्त आहे त्याकडे पहा. त्याची जपणूक करा आणि हो! तुमच्या मित्रांना कधीही विसरु नका, त्यांना जपा. हे जर तुम्हाला जमले तर तुम्ही मनाने कायम तरुण रहाल आणि इतरांनाही हवेहवेसे वाटाल.
मित्र नसतील तर तुम्ही नक्कीच एकटे आणि एकाकी पडाल.
म्हणूनच म्हणतो नं..
"आयुष्य खुप कमी आहे,
ते आनंदाने जगा..!
प्रेम मधुर आहे,
त्याची चव चाखा..!
क्रोध घातक आहे,
त्याला गाडुन टाका..!
संकटे ही क्षणभंगुर आहेत,
त्यांचा सामना करा..!
डोंगराआड गेलेला सूर्य
परत दिसू शकतो,
पण माथ्या आड गेलेला "जिवलग"
परत कधीच दिसत नाही" ...........
आठवणी या चिरंतन आहेत,
त्यांना ह्रदयात साठवून ठेवा.

*सीता राम*

ईश्वर की प्राप्ति कैसे हो - भाग 2

उपरोक्त पंक्तियों में बताया जा चुका है कि सम्पूर्ण जड़-चेतन सृष्टि का निर्माण, नियन्त्रण, संचालन और व्यवस्था करने वाली आद्य बीज शक्ति को ईश्वर कहते हैं। यह सम्पूर्ण विश्व के तिल-तिल स्थान में व्याप्त है और सत्य की, विवेक की, कर्तव्य की जहाँ अधिकता है, वहाँ ईश्वरीय अंश अधिक है। जिन स्थानों में अधर्म का जितने अंशों में समावेश है, वहाँ उतने ही अंश में ईश्वरीय दिव्य सत्ता की न्यूनता है।

सृष्टि के निर्माण में ईश्वर का क्या उद्देश्य है ? इसका ठीक-ठीक कारण जान लेना मानव बुद्धि के लिए अभी तक शक्य नहीं हुआ। शास्त्रकारों ने अनेक अटकलें इस संबंध में लगाई हैं; पर उनमें से एक भी ऐसी नहीं हैं, जिससे पूरा संतोष हो सके। सृष्टि रचना में ईश्वर का उद्देश्य अभी तक अज्ञेय बना हुआ है। भारतीय अध्यात्मवेत्ता इसे ईश्वर की लीला कहते हैं। अतः ईश्वरवाद का सिद्धान्त सर्वथा स्वाभाविक और मनुष्य के हित के अनुकूल है। आज तक मानव समाज ने जो कुछ उन्नति की है, उसका सबसे बड़ा आधार ईश्वरीय विश्वास ही है। बिना परमात्मा का आश्रय लिए मनुष्य की स्थिति बड़ी निराधार हो जाती है, जिससे वह अपना कोई भी लक्ष्य स्थिर नहीं कर सकता और बिना लक्ष्य के संसार में कोई महान् कार्य संभव नहीं हो सकता। इसलिए परमात्मा के विराट् स्वरूप के रहस्य को समझ कर ही हमको संसार में अपनी जीवन-यात्रा संचालित करनी चाहिए॥

*ईश्वर की प्राप्ति कैसे हो*



जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होगी, वह उतनी ही व्यापक होगी। पंचभूतों में पृथ्वी से जल, जल से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से आकाश सूक्ष्म है, इसलिए एक-दूसरे से अधिक व्यापक हैं। आकाश-ईथर तत्त्व हर जगह व्याप्त है, पर ईश्वर की सूक्ष्मता सर्वोपरि है, इसलिए इसकी व्यापकता भी अधिक है। विश्व में रंचमात्र भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ ईश्वर न हो। अणु-अणु में उसकी सत्ता एवं महत्ता व्याप्त हो रही है। स्थान विशेष में ईश्वर तत्त्व की न्यूनाधिकता हो सकती है। जैसे कि चूल्हे के आसपास गर्मी अधिक होती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि उस स्थान पर अग्नि तत्त्व की विशेषता है, इसी प्रकार जलाशयों के समीप शीतल स्थान में अग्नि तत्त्व की न्यूनता कही जायेगी। जहाँ सत्य का, विवेक का आचरण अधिक है, वहाँ ईश्वर की विशेष कलाएँ विद्यमान हैं। जहाँ आलस्य, प्रमाद, पशुता, अज्ञान हैं, वहाँ उसकी न्यूनता कही जायेगी। सम्पूर्ण शरीर में जीव व्याप्त है, जीव के कारण ही शरीर की स्थिति और वृद्धि होती है; परन्तु उनमें भी स्थान विशेष पर जीव की न्यूनाधिकता देखी जाती है। हृदय, मस्तिष्क, पेट और मर्मस्थानों पर तीव्र आघात लगने से मृत्यु हो जाती है; परन्तु हाथ, पाँव, कान, नाक, नितंब आदि स्थानों पर उससे भी अधिक आघात सहन हो जाता है। बाल और पके हुए नाखून जीव की सत्ता से बढ़ते हैं, पर उन्हें काट देने से जीव की कुछ भी हानि नहीं होती। संसार में सर्वत्र ईश्वर व्याप्त है। ईश्वर की शक्ति से ही सब काम होते हैं; परन्तु सत्य और धर्म के कामों में ईश्वरत्व की अधिकता है। इसी प्रकार पाप प्रवृत्तियों मे ईश्वरीय तत्त्व की न्यूनता समझना चाहिए। धर्मात्मा, मनस्वी, उपकारी, विवेकवान और तेजस्वी महापुरुषों को अवतार कहा जाता है। क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा के आकर्षण से ईश्वर की मात्रा उनके अंतर्गत अधिक होती है। अन्य पशुओं की अपेक्षा गौ में तथा अन्य जातियों की अपेक्षा ब्रह्मान्ड में ईश्वर अंश अधिक माना गया है; क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा, उपकारी स्वभाव ईश्वर भक्ति को बलपूर्वक अपने अन्दर अधिक मात्रा में खींच कर धारण कर लेता है।

क्रमशः