प्रेम साध्य नही है, लक्ष्य नही है, साधन है, उस परमेश्वर अखण्ड प्रेम धारा में सम्मिलित होने का
पैसा भी जीवन का साध्य नही साधन है,
जीना है तो कुछ न कुछ मात्रा में पैसा भी चाहिये,
लेकिन जब साधन ही बंध का कारण हो जाये तो किसी भी प्रकार के दुखों से मुक्ति नही होती।
साध्य क्या है ये निश्चय करने का काम बुद्धि का है। लेकिन बुद्धि को अकेले निर्णय करना नही आता। जब विवेक बुद्धि से जुड़ता है, तब सारासार विचार हो कर ज्ञान उपजता है, फिर वैराग्य दिखाई देता है।
पर इतना वेदांत समझने के लिये गुरु से निरपेक्ष प्रेम चाहिए।
बालबुद्धि से सवाल हो
पर प्रौढ़ बुद्धि से सवाल न हो
न ही गुरु को दिशा निर्देश देने की चेष्टा हो....
यही रास्ता है, ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रेसर व्यक्ति के लिये।
सीताराम
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