रविवार, 8 जनवरी 2017

जीवनाची सार्थकता


राजा विक्रमादित्य अत्यंत पराक्रमी, न्यायप्रिय, ईमानदार एवं दयालु शासक थे। उनकी प्रजा उनके द्वारा किए गए कामों की सराहना करते नहीं थकती थी। एक बार वह अपने गुरु के दर्शन करने उनके आश्रम पहुंचे। आश्रम में उन्होंने गुरु जी से अपनी कई जिज्ञासाओं का समाधान पाया। जब वह वहां से चलने लगे तो उन्होंने गुरु जी से कहा, 'गुरु जी, मुझे कोई ऐसा प्रेरक वाक्य बताइए जो महामंत्र बनकर न केवल मेरा
बल्कि मेरे उत्तराधिकारियों का भी मार्गदर्शन करता रहे।'
गुरुजी ने उन्हें एक श्लोक लिखकर दिया जिसका आशय यह था कि मनुष्य को दिन व्यतीत हो जाने के बाद कुछ समय निकालकर यह चिंतन अवश्य करना चाहिए कि आज का व्यतीत होने वाला समय पशुवत गुजरा या सत्कर्मों में बीता क्योंकि बिना कार्य, समाजसेवा, परोपकार आदि के तो पशु भी अपना गुजारा प्रतिदिन करते हैं, जबकि मनुष्य का कर्त्तव्य तो अपने जीवन को सार्थक करना है। इस श्लोक का राजा विक्रमादित्य पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने इसे अपने सिंहासन पर अंकित करवा दिया। अब वह रोज रात को यह विचार करते किउनका दिन सद्कार्य में बीता या नहीं। एक दिन अति व्यस्तता के कारण वह किसी की मदद अथवा परोपकार का कार्य नहीं कर पाए। रात को सोते समय दिन के कामों का स्मरण करने पर उन्हें याद आया कि आज उनके हाथ से कोई धर्म कार्य नहीं हो पाया। वह बेचैन हो उठे। उन्होंने सोने की कोशिश की पर उन्हें नींद नहीं आई। आखिरकार वह उठकर बाहर निकल गए। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक गरीब आदमी ठंड से सिकुड़ता हुआ सर्दी से बचने की कोशिश कर रहा है।
उन्होंने उसे अपनी दुशाला ओढ़ाई और वापस राजमहल आ गए। उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि आज का दिन अच्छा बीता। उन्होंने सोचा कि यदि प्रत्येक व्यक्ति नेक कार्य, सद्भावना व परोपकार को अपनी दिनचर्या में शामिल कर ले तो उसका जीवन सार्थक हो जाएगा। यह सोचकर उन्हें नींद आ गई।

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